
सांझ भी गगन से चल कर क्षितिज तक आ गई।
रात ने दस्तक दी और तिमिर चहुं ओर, फैला गई।
टिमटिमाते तारों ने ,आश्वासन देकर थपकी लगाया,
उम्मीद के उजियारों ने, फिर! एक आस नई जगा गई।
सोचती हूं ! ज़िन्दगी में क्या खोया ,क्या पाया है?
ज़िन्दगी है, क्या बला ?अब तक समझ ना आया है।
विवस हूं, मजबूर हूं,या कुछ समय से दूर हूं!
ज़िन्दगी के उलझनों ने हर पहर भरमाया है।।
था कहां ही? समय, कि मैं मुड़ के पीछे देखती भी ,
क्या थी मैं ?और कौन हूं?यह स्वयं से हूं पूछती भी।
यातना भी यातना देते हुए थर्रा उठी थी,
कांपते थे होंठ और स्वर चींख कर भर्रा उठी थी।।
क्षणिक थे पलछिन खुशी के हक में दुःख ढ़ेरों मिले,
दर्द दफना कर के दिल में,होठ अक्सर थे सिले।
कह गई हर शाम! आएगी सुबह खुशियों भरी,
बैठ कर हूं राह तकती शायद अब वो पल मिले।।