
कांशीराम का जन्म ब्रिटिश शासन काल में पंजाब के रूपनगर (वर्तमान में रोपड़ जिले) में 15 मार्च 1934 को हुआ था। उन्होंने रोपड़ के शासकीय महाविद्यालय से 1956 में बीएससी की डिग्री हासिल की। बाद में पुणे में स्थित गोला बारूद फैक्ट्री में क्लास वन अधिकारी के पद पर उनकी नियुक्ति हुई। लेकिन उन्हें जातिगत आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। कहा जाता है कि डॉ भीमराव आंबेडकर की जयंती के मौके पर एक दलित कर्मचारी ने छुट्टी मांगी तो उसके साथ भेदभाव होने के बाद कांशीराम ने दलितों के लिए संघर्ष करना शुरू कर दिया।
कांशीराम डॉक्टर भीमराव आंबेडकर से बहुत प्रभावित थे। कांशीराम ने भारतीय राजनीति और समाज में एक बड़ा परिवर्तन लाने में अहम भूमिका निभाई। कांशीराम ने आंबेडकर के संविधान को धरातल पर उतारने के लिए काम किया। कांशीराम की आवाज को दबाने के लिए उन्हें नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया। इस पर कांशीराम ने उन्हें निलंबित करने वाले अधिकारी की पिटाई कर दी थी।
कांशीराम ने बामसेफ की स्थापना की। यह न तो राजनीतिक पार्टी थी और न ही कोई धार्मिक संगठन। उसके बाद उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति नाम के सामाजिक संगठन की स्थापना की, जिस पर राजनीतिक प्रभाव भी रहता था।
कांशीराम के बारे में एक कहावत खूब मशहूर है। अपनी राजनीति के शुरुआती दिनों में वह एक बात कहा करते थे, जिसे आज भी राजनीतिज्ञों द्वारा उद्धृत किया जाता है। कांशीराम कहते थे- पहला चुनाव हारने के लिए होता है। दूसरा हरवाने के लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए होता है। दलित समुदाय के आरक्षण को लेकर भी कांशीराम का एक नारा बेहद प्रसिद्ध है। इसमें उन्होंने कहा- ‘वोट से लेंगे सीएम-पीएम। आरक्षण से लेंगे एसपी-डीएम।’
मायावती को बनाया मुख्यमंत्री
14 अप्रैल 1984 को कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया। यह पार्टी दलितों के अधिकारों की बात करती थी। इसके बाद उन्होंने कलेक्टर बनने का सपना देख रही एक युवा शिक्षिका को राजनैतिक मार्गदर्शन दिया। यही शिक्षिका बाद में न सिर्फ कांशीराम की राजनैतिक वारिस बनी बल्कि चार बार देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनी। नाम है मायावती, जो कांशीराम की दूरदृष्टि की अनुपम उदाहरण हैं