पुस्तक चर्चा (भाग 2) – दिलीप दीपक
सन् 2022 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य के पद पर कार्यरत डॉक्टर लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता का काव्य संग्रह ‘आखिरी नदी’ का प्रकाशन हुआ। यह डॉक्टर लक्ष्मण की छंद मुक्त गद्यात्मक कविताओं का संकलन है। जो डॉक्टर लक्ष्मण की जीवन यात्रा एवं उनके संघर्ष की एक झलक प्रस्तुत करता है। इस महत्वपूर्ण संग्रह के लिए आचार्य को बधाई दी जानी चाहिए।
प्रस्तुत संग्रह में 55 कविताएं संकलित हैं। संग्रह की पहली कविता ‘वह तोड़ना जानती है’ उनके प्रगतिशील मन की उपज है। जो उन्हें निराला की पीढ़ी से जोड़ती है। वे सकारात्मक नव सृजन के लिए पुत्री के विध्वंस के साथ खड़े दिखते हैं। यथा-
“इसी तरह तोड़ते तोड़ते
एक दिन मैं तोड़ दूंगी
दुनिया की सारी उठी हुई दीवार”
यहां पर कवि मानों पुत्री से भविष्य में क्रांति की उम्मीद कर रहा हो। क्रांति की एक विसंगति है कि व्यक्तिगत रूप में वह देती कम छीनती अधिक है। इसी कारण सभी चाहते हैं, कि भगत सिंह पैदा हों, लेकिन मेरी संतान भगत सिंह न हो। कवि साहसी है। पुत्री के विध्वंस में सृजन की परिकल्पना पिता मन ही कर सकता है।
डॉ० लक्ष्मण प्रसाद का प्रिय प्रतीक ‘नदी’ है।इस संग्रह की कई कविताओं में नदी प्रतीक, बिम्ब, उपमान आदि के रूप में उपस्थित है। यथा-‘बेतवा और यमुना के हवाले से’, ‘तीसरी नदी’, ‘नदी और अफ़साने’, ‘नदी का पानी’, ‘स्मृति’, ‘हजार चांद और तन्हां शख्स’, ‘आंखों से बहती नदी’, ‘आकाश’, ‘साथी’ आदि। संभवत: इसी कारण इस संग्रह का शीर्षक ‘तीसरी नदी’ किया गया है। जो आकर्षण उत्पन्न करने में सफल है। ‘तीसरी नदी’ कविता में कवि इलाहाबाद की त्रिवेणी में खोई हुई तीसरी नदी ‘सरस्वती’ की तलाश कर रहा है। उसे आशंका है, कि सदियों पहले किसी वर्ग या जाति ने उसका अपहरण कर लिया है। यहां कवि भौगोलिक अन्वेषण की संभावना उत्पन्न कर रहा है। यह देखा जाना चाहिए कि क्या कोई तीसरी नदी त्रिवेणी में जाकर मिलती थी। जिसकी धारा या तो बदल गई हो या फिर सूख गई है। यथा-
“मैं हर किसी की निगाह में
ढूंढ रहा हूं
वह तीसरी नदी
जिसे सदियों पहले
किसी के पुरखे उठा ले गए थे
अपनी अंजुरी में।”
कुछ वर्ष पहले भारत सरकार के द्वारा भी सरस्वती नदी का भौगोलिक अन्वेषण कार्य करवाया गया था।
डॉ० लक्ष्मण की कविताओं में नदी जब प्रतीक के रूप में आती है। तो वह अपनी संपूर्ण जीवंतता के साथ उपस्थित होती है। उसके कल-कल प्रवाह की निर्मलता, न केवल कवि अपितु उसके साथ पाठक के मन की पीड़ा को भी शांत कर,ठंडक की अनुभूति प्रदान करती है। नदी के साथ कवि का अंतरमन कितना जुड़ा है। इसका प्रमाण उनकी कविता ‘स्मृति’ से लगाया जा सकता है। जहां वे लिखते हैं कि-
“मैं शहरों को
उनके नाम से नहीं
उन नदियों से जानता हूं
जिनके किनारे
बसे हैं वे
कोई भी शहर
मेरी स्मृति में
बस उतना ही भर जीवित है
जितना कि उस शहर की नदी।”
‘हजार चांद और तन्हा शख्स’ कविता में साहिल पर बैठे तन्हा शख्स और नदी के बिम्ब ने एक ऐसा चल-चित्रात्मक वातावरण का सृजन किया है, कि कवि की अनुभूति वेदना लोक में जाकर कवि और पाठक के मन को एकाकार कर देती है। पाठक भी कवि के साथ किसी अपने का चेहरा नदी में ढूंढने लगता है –
“एक तन्हा शख्स
साहिल पर बैठा हुआ
बहते हुए पानी में
ढूंढ रहा है
बरसों पहले खोया हुआ चेहरा
उसे भरोसा है
खोए हुए लोग
और खोया हुआ चेहरा
पानी में ही उतराते हैं”।
उन खोए हुए चेहरों की स्मृति पाठक को वेदना लोक में ले जाती है। जहां अनुभूतियां तरल होकर अंतर मन को भिगोने लगती हैं और सब कुछ आद्र हो जाता है।
डॉ० लक्ष्मण की अनुभूतियों में जब अंतर्द्वंद्व का समावेश होता है। तो उनका चिंतनशील मन व्याकुल हो उठता है। मन की व्याकुलता वेदना और टीस से युक्त हो हृदय में चुभने लगती है, कविता तब लंबी होती जाती है। यहां डॉक्टर लक्ष्मण मुक्तिबोध की तरह बेचैन लगते हैं जो गहन अंधकार में घबराए हुए भागे जा रहे हैं। यथार्थ की ओर और सांसारिक विद्रूपता में धंसते जाते हैं।