ग़म बन के मुझमें, उतरते रहे हैं
कि आँखों से मेरी,वो झरते रहे हैं ।
जहाँ तुम गये हो, वहाँ का पता दो
कि मिलने को तुमसे, तरसते रहे हैं ।
मेरे हक की भी वो ,उमर ले चले हैं
मैं ठगा सा खड़ा, वो सफ़र कर रहे हैं ।
कि जाना है सबको, जहाँ तुम गये हो
उम्मीदों को अपनी, दफ़न कर रहे हैं ।
कहें क्या ‘अनुपमा’ कैसा ये जीवन
बना खुद को पत्थर,रसम कर रहे हैं ।