– आर्यपुत्र दीपक
शोधार्थी , पत्रकार , संपादक
बेगूसराय , बिहार
लोकजागरण एवं लोकविश्वास का महापर्व डाला छठ पर लिखे इस आलेख में हम छठ के पौराणिक एवं लोक मान्यताओं पर अधिक बात ना करके इस महापर्व की वर्तमान में प्रासंगिकता, महत्ता एवं उपयोगिता पर चर्चा करेंगे। इसके माध्यम से हम यह भी देखेंगे कि आज पूरी दुनिया जिन समस्याओं का सामना कर रही है उन समस्याओं का हल महापर्व छठ कैसे अपनी लोकजीवी परंपरागत मान्यताओं से देता है।
महापर्व छठ साल में दो बार मनाया जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार पहला छठ चैत मास में एवं दूसरा कार्तिक मास में मनाया जाता है। पहला छठपर्व चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाया जाता है जिसे चैती छठ कहते हैं एवं दूसरा कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने के कारण ‘कार्तिकी छठ’ कहा जाता है, दक्षिण बिहार एवं उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में इसे ही डाला छठ कहते हैं। दोनों छठ पूजा की मान्यताएं लगभग बराबर होती है लेकिन यहां हम मुख्य रूप से कार्तिकी छठ की चर्चा करेंगे। चार दिवसीय लोकजागरण के इस महापर्व का वर्णन वेदों , पुराणों, ब्राह्मण ग्रंथों के साथ कई शास्त्रों में की गई है , लेकिन यह लोकपर्व किसी भी शास्त्रीय पूजा पद्धति, विधि-विधान या कर्मकांड को स्वीकार नहीं करता। यह हिन्दू धर्म में चली आ रही मूर्ति पूजा के बरक्स विशुद्ध रूप से प्रकृति पूजा को समर्पित है। यह महापर्व पुरोहितवादी एवं पुरुषवादी मानसिकता को बिल्कुल दरकिनार करके मां-बहनों की चार दिन की निर्जला व्रत के साथ सम्पन्न होता है। यह अलग-अलग क्षेत्र के क्षेत्रीय लोक मान्यताओं के अनुसार मनाया जाता है जिसमें रूढ़िवादिता और शास्त्रीयता का अंश मात्र भी हस्तक्षेप नहीं होने दिया जाता है। प्रकृति उन्मुख विधि-विधानों के साथ क्षेत्रीय मान्यताओं के अनुसार यह महापर्व मनाया जाता है। जैसे बिहार के कई हिस्सों में घाट किनारे मिट्टी की बेदी बनाकर उस पर ईख लगाने की परंपरा नहीं है, जबकि दक्षिण बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह परम्परा प्रचलित है।
आज पूरी दुनिया पूंजीवादी मानसिकता, बाजारू दिनचर्या, तकनीकी जटिलता, शहरी चकाचौंध, भाषाई फूहड़पन एवं दैहिक प्रदर्शन से तंग आकर सुदीर्घ भारतीय संस्कृति की ओर देखती है तो बरबस उत्तर भारत की ओर आकर्षित होती चली आती है। यही कारण है कि आज बेगूसराय से लेकर वाशिंगटन तक और दिल्ली से लेकर लंदन तक छठ महोत्सव को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। सांस्कृतिक विनिमय के इस दौर में छठ महापर्व का वैश्विक पटल पर छा जाने का एक प्रमुख कारण बिहार सहित उत्तर भारत के प्रवासी भारतीय हैं जो विश्व में जहाँ भी गये अपनी संस्कृति को साथ ले गयें, फिजी, मॉरीशस, त्रिनिदाद…जैसा देश तो यूरोप में बिहारी संस्कृति का विकसित स्वरूप लगता है। इसकी वैश्विक स्वीकार्यता का दूसरा बड़ा कारण पर्यावरणीय चिंतन व प्रकृतिउन्मुख दृष्टिकोण है इन्हीं वजहों से सूर्य महोत्सव को आंतरिक शुचिता, सहिष्णुता और आत्म संशोधन का महापर्व भी कहा जाता है।
पूरी दुनिया में साम्यवाद और विश्व बंधुत्व का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है कि विश्व की सबसे तेजस्वी ज्वाला को सबसे कोमलतम पात्र केला के पत्ता पर आमंत्रित किया जाता है और वो निमंत्रण सहज स्वीकार्य होता है। विश्व के सबसे श्रेष्ठतम विचारधारा ‘समाजवाद’ का जैसा दृश्य महापर्व डाला छठ के दो दिन घाटों पर देखने को मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है इस महोत्सव में अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, छूत-अछूत सब एक जैसे दिखते हैं। नदी-पोखर की मटमैली पानी में सवा लाख की साड़ी पहनी व्रती से लेकर सवा सौ की साड़ी पहनी सभी व्रती एक साथ, एक पंक्ति में खड़ा हो भगवान दिवाकर की आराधना करतीं हैं। आस्था के इस महापर्व में जैसा समाजिक समरसता, साम्यता, सहिष्णुता, आपसी सहयोगिता एवं वसुधैव कुटुम्बकम की जो भावना दो दिन घाटों पर दिखाई देती है वैसा भारत के हर कोने में सालों भर दिखाई देने लगे तो भारत को विश्वगुरु बनने से कोई ताकत नहीं रोक सकता।
पूरी दुनिया में साम्यवाद और विश्व बंधुत्व का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है कि विश्व की सबसे तेजस्वी ज्वाला को सबसे कोमलतम पात्र केले के पत्ते पर आमंत्रित किया जाता है और वो निमंत्रण सहज स्वीकार्य होता है। विश्व के सबसे श्रेष्ठतम विचारधारा ‘समाजवाद’ का जैसा दृश्य महापर्व डाला छठ के दो दिन घाटों पर देखने को मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है इस महोत्सव में अमीर-गरीब, ऊँच-नीच ,छूत-अछूत सब एक जैसे दिखते हैं। नदी-पोखर के मटमैले पानी में सवा लाख की साड़ी पहनी व्रती से लेकर सवा सौ की साड़ी पहनी सभी व्रती एक साथ, एक पंक्ति में खड़े हो भगवान दिवाकर की आराधना करतीं हैं। आस्था के इस महापर्व में जैसी समाजिक समरसता, साम्यता, सहिष्णुता, आपसी सहयोगिता एवं वसुधैव कुटुम्बकम की जो भावना दो दिन घाटों पर दिखाई देती है वैसी भारत के हर कोने में सालों भर दिखाई देने लगे तो भारत को विश्वगुरु बनने से कोई ताकत नहीं रोक सकती।
यह महापर्व प्रकृति के समाजवादी एवं साम्यवादी सिद्धांत को आत्मसात कर पूरी दुनिया को सम्पत्ति एवं विपत्ति में समभाव से रहने की प्रेरणा देता है। आज जब सभी पर्व त्योहारों को बाजार ने अपने वश में कर लिया है- नीर से लेकर नेह तक और गेह से लेकर देह तक सब बेचा जा रहा है तब भी यह महापर्व प्रकृति के मूलभूत उपादानों से सुसज्जित और सुशोभित है। इसमें प्रयोग होने वाले गुड़ ,आटा , मिट्टी का चुल्हा से लेकर सूप ,फल , बहगि आदि सभी वस्तुएं श्रमिक महोत्सव के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं इसमें कलकारखानों का हस्तक्षेप अस्वीकार्य होता है। इस महापर्व को आस्था के महोत्सव के साथ श्रमोत्सव के रूप में देखा जा सकता है। यह महोत्सव हमें यह सीखाता है कि जो अपने परिवेश से जितना आबद्ध होता है वह परदेश से भी उतना ही सम्बद्ध हो पाता है।
आज पूरी दुनिया में कन्जर्व इकोलॉजी , सेव एनवायरोमेंट , सेव नेचर की बात हो रही है। पारिस्थितिकी नियंत्रण के लिए वैश्विक स्तर पर कई बड़े संगठन बनाये गये हैं, यू.एन.इ.पी , डब्ल्यू.एच.ओ जैसी वैश्विक संस्था सलाना अरबों रुपए खर्च कर रही है। पर्यावरण के इस विघटन के समय में भी यह डाला छठ एक ऐसा त्योहार है जो पारिस्थितिकी नियंत्रण , वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन से लेकर कन्जर्व इकोलॉजी को पहली प्राथमिकता देता है। इसमें ऐसी कोई भी वस्तु का प्रयोग नहीं किया जाता जो बायो डिग्रेडेबल ना हो। पूंजी या बाजार इस महापर्व की संस्कृति में ही नहीं है। इसकी संस्कृति में केवल प्रकृति है इसी कारण छठ पूजा के प्रसाद को सबसे पहले पशु-पंक्षियों, दीन-हीनों, असहायों और अकिंचनों को दिया जाता है। हमारी संस्कृति और हमारे समाज के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि हाल के कुछ वर्षों में बाज़ार इस इस पर्व में भी हस्तक्षेप करने लगा है, आंतरिक शुचिता की जगह वाह्य आडंबरपूर्ण दिखावटी संस्कृति हावी होती जा रही है। लोग इस आंतरिक महोत्सव को भी फैशन शो के रूप में देखने लगे हैं।
भारत सहित पूरी दुनिया में स्वच्छता, सफाई और स्वास्थ्य को लेकर जनजागरण अभियान चलाया जा रहा है, सरकारें अरबों रूपये खर्च कर रही है। जबकि आदि-अनादि काल से महापर्व छठ पूजा का प्राणतत्व पवित्रता, स्वच्छता और शुद्धता ही रहा है। छठ पूजा के दो दिन पहले से ही घर-ऑंगन से लेकर नदी-पोखर के घाट तक सुव्यवस्थित ढंग से घाटों एवं सड़कों को साफ़ कर सजाया जाता है। लेकिन यह विडंबना और दुर्भाग्य कहिए कि बिहार का सबसे बड़ा स्वच्छता और प्रवित्रता का महापर्व होने के बावजूद स्वच्छता और स्वास्थ्य में बिहार भारत में सबसे निचले पायदान पर है, जिसके बारे में बिहार के राजनेताओं के साथ आम जन को भी गंभीरता से विचार करना चाहिए साथ ही त्वरित कोई मजबूत कदम उठाना चाहिए।
लोक जागरण का यह महापर्व भारत के समावेशी, समरसता पूर्ण, सह-अस्तित्व की अवधारणा लिए उदात्त संस्कृति की झलक पूरी दुनिया को दे रहा है। पूरी दुनिया उदयमान सूर्य की आराधना कर उन्नति की कामना करती है तब बिहार के लोग पहले डूबते सूर्य को अर्घ्य देकर यह संदेश देते हैं कि जो भी विपत्ति के क्षण में सहयोग, समर्पण के साथ हो वही संपत्ति में भी सबसे पहले वंदनीय एवं पूजनीय होता है।
आज जब सामाजिक संबंध निरंतर कमजोर होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार की अवधारणा जैसे खत्म होती जा रही है। गाँव शहर की स्मृतियों में बसने लगा है। पाश्चात्य संस्कृति की बढ़ती स्वीकार्यता और वर्चस्व के कारण लोग अपने जड़ से बेहद कमजोर होते जा रहे है। व्यक्ति अकेलापन और पूंजी जनित वैमनस्यता का शिकार होता जा रहा है। इन परिस्थितियों में डाला छठ की प्रासंगिकता काफी बढ़ जाती है। इस त्योहार में ना केवल लोग परदेश से अपने मूल परिवेश की ओर लौटते हैं बल्कि अपने संस्कृति के सम्बर्धन के लिए परिवार के वरिष्ठ जनों के सान्निध्य में आते हैं। इस महोत्सव के कारण संयुक्त, सुखी, समृद्ध और सम्पन्न भारतीय परिवार की अवधारणाओं को बल मिलता है। अभी के समाज के अधिकांश लोग कृत्रिम और भौतिक जीने को आतुर है जबकि इस त्योहार को जीकर लोग प्राकृतिक व मौलिक जीवन जीने को प्रेरित होते हैं। यह महोत्सव व्यक्ति को एकाकीपन से बाहर निकाल कर समाजोन्मुख बनता है, पूंजी जनित क्षणिक वैमनस्यता को त्यागकर सामासिक संस्कृति को समृद्ध करने की कोशिश करता है। डाला छठ महापर्व अपने मूल परिवेश एवं प्रकृति को जानने, जगाने और जीने का भी एक महोत्सव है।